शिवरात्रि के पावन अवसर पर नीलकंठ मार्ग पर बेर के पौधों का किया रोपण

 शिवरात्रि जीवन में चेतना के जागरण की रात्रि-स्वामी चिदानन्द सरस्वती


ऋषिकेश। श्रावण शिवरात्रि के अवसर पर परमार्थ निकेतन के आचार्यों,ऋषिकुमारों और परमार्थ परिवार के सदस्यों ने वैदिक मंत्रों एवं दिव्य शंख ध्वनि के साथ शिवाभिषेक कर विश्व मंगल की प्रार्थना की। परमार्थ निकेतन द्वारा शिवरात्रि के अवसर पर कांवडियों व शिवभक्तों की भारी संख्या को देखते हुये12घन्टे लगातार बाघखाला में चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध करायी जा रही हैं। स्वामी चिदानन्द सरस्वती ने अपने संदेश में कहा कि भगवान शिव निराकार व ओमकार ब्रह्मांडीय चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं और यह दिव्य शक्ति न केवल बह्माण्ड बल्कि सभी में समाहित है। शिव की सर्वोच्च चेतना और माता पार्वती जी की शक्ति की दिव्य ऊर्जा का सभी के जीवन में संचार हो। स्वामी जी ने कहा कि शिव परिवार सर्वत्र समानता, विविधता में एकता, समर्पण और प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। भगवान शिव के गले में सर्प,श्री गणेश का वाहन चूहा और श्री कार्तिकेय का वाहन मोर है,सर्प,चूहे का भक्षण करता है और मोर,सर्प का परन्तु परस्पर विरोधी स्वभाव होते हुये भी शिव परिवार में आपसी प्रेम है। अलग-अलग विचारों, प्रवृतियों, अभिरूचियों और अनेक विषमताओं के बावजूद प्रेम से मिलजुल कर रहना ही हमारी संस्कृति है और शिव परिवार हमें यही शिक्षा देता है।आज शिवरात्रि के पावन अवसर पर स्वामी जी ने शिवजी की नटराज मुद्रा का दिव्य वर्णन करते हुये अपने सत्संग में कहा कि शिव, संहारक और सृजनकर्ता दोनों हैं, जीवन के द्वंद्वों को मूर्त रूप देते हुए सृजन और विनाश दोनों से जुड़े हुए हैं। नटराज का तांडव नृत्य इसका प्रतीक हैं और इसके पीछे एक गहरी अंतर्दृष्टि भी है। शिव के अग्रदूत रुद्र हैं, जो प्राकृतिक तत्त्वों और प्रकृति की दैवीय शक्तियों के प्रतीक हैं। शिवजी का शांत प्रभामंडल संसार के चक्र का प्रतीक हैं। उनकी लंबी, घनी जटाएँ ऊर्जा और गतिशीलता को दर्शाती हैं। उनके दाहिने हाथ में एक डमरू है, जो सम्पूर्ण मानवता को अपनी लयबद्ध गति से अपनी ओर आकर्षित करता है। बाईं भुजा में वें अग्नि धारण करते हैं,जो संहारक अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्मांड को नष्ट करने की उनकी शक्ति का प्रतीक हैं। एक पैर के नीचे कुचली हुई आकृति है,जो भ्रम और सांसारिक विकर्षणों से दूर रहने का संदेश देती हैं। शिवजी के एक कान में नर कुंडल है और दूसरे में नारी कुंडल हैं,जो कि नर और नारी की समानता अर्थात् अर्धनारीश्वर का प्रतिनिधित्व करता है। भगवान शिव की भुजा के चारों ओर एक साँप लपेटा हुआ हैं जो कि कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है, जो सभी की रीढ़ में सुप्त अवस्था में पड़ी है। यदि कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत किया जाए तो जीवन की चेतना जागृत हो जाती है। जिसके दर्शन हमें आदियोगी में साक्षात होते हैं। शिव जी ने दाहिने हाथ में‘अभयमुद्रा’ बनायी हैं जो भक्तों को भयमुक्त जीवन जीने के साथ अभय होने का वरदान प्रदान करती है। शिव जी की नटराज मुद्रा में उनका उठा हुए पैर और उनके बाएँ हाथ शरणागति का दिव्य संदेश देता है तथा उनके चेहरे की मंदमंद मुस्कान ‘मृत्यु और जीवन’,’सुख और दुःख’ दोनों का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्वामी जी ने कहा कि शिवरात्रि, हमें अपनी अर्न्तचेतना से जुड़ने,सत्य को जनाने, स्व से जुड़ने तथा शिवत्व को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती है। स्वामी जी ने कभी शिवभक्तों का आह्वान करते हुये कहा कि श्रावण माह प्रकृति और पर्यावरण की समृद्धि का प्रतीक है। इस माह में नैसर्गिक सौन्द्रर्य चरम पर होता है इसलिये शिवाभिषेक के साथ धराभिषेक भी जरूरी है। उत्तराखण्ड के तो कण-कण में शिव का वास हैं इसलिये इस देवभूमि को सिंगल यूज प्लास्टिक से प्रदूषित न करें और अपनी यात्रा की याद में कम से कम पांच पौधों का रोपण अवश्य करें।